BA Semester-3 DarshanShastra - Hindi book by - Saral Prshnottar Group - बीए सेमेस्टर-3 दर्शनशास्त्र - सरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-3 दर्शनशास्त्र

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2022
पृष्ठ :160
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2642
आईएसबीएन :0

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बीए सेमेस्टर-3 दर्शनशास्त्र : सर्ल प्रश्नोत्तर

प्रश्न- गीता के निष्काम कर्म की विस्तारपूर्वक व्याख्या कीजिए।

अथवा
गीता के 'निष्काम कर्म की व्याख्या कीजिए। इस प्रसंग में काण्ट तथा गीता के बीच सम्बन्ध को स्पष्ट कीजिए।
अथवा
भगवद्गीता के 'निष्काम कर्मयोग' सिद्धान्त की विवेचना कीजिए।
अथवा
निष्काम कर्मयोग की समीक्षात्मक विवेचना कीजिए।
अथवा
'निष्काम कर्मयोग भगवद्गीता का केन्द्रीय सिद्धान्त है। इस कथन का समीक्षात्मक विवेचन कीजिए।

उत्तर -

निष्काम कर्म का अर्थ  

मनुष्य जब इस जीवन में रहता है तब कर्म करना उसका स्वभाव होता है। किसी कर्म को किये बिना वह रह ही नहीं सकता है। मनुष्य के शरीर ग्रहण करने का अर्थ है उसका क्रियाशील होना अर्थात् किसी न किसी कर्म को करते रहना। क्रियाशीलता के अभाव का अर्थ मानव शरीर का विनष्ट होना है। इस विश्व में सभी प्राणी कोई न कोई कर्म किये बिना नहीं रह सकते हैं। कर्म करना प्राणियों का प्राकृतिक गुण है। इस प्रकार अनैच्छिक रूप से भी प्राकृतिक गुण के प्रयोजन से सभी प्राणियों को क्रियाशील होकर कर्म करना पड़ता है। कर्म मनुष्य के लिए अनिवार्य है।

निष्काम शब्द की उत्पत्ति संस्कृत के निः + काम से हुई है जिसका अर्थ है बिना फल के तथा कर्म का अर्थ है - क्रियाशील होना। अतः शाब्दिक व्युत्पत्ति की दृष्टि से निष्काम कर्म का अर्थ है कि कर्ता को बिना फल या परिणाम की कामना के क्रियाशील होना अर्थात परिणाम की आशा किये बिना कर्म करते रहना। निष्काम शब्द का विपरीत सकाम है जिसका अर्थ है - फल प्राप्ति की कामना के साथ। सकाम कर्म में मनुष्य या कर्ता कर्म के सम्पादनं में परिणाम प्राप्ति की भावना अपने मन में रखता है। निष्काम कर्म में कर्म करने का प्रश्न नहीं उत्पन्न होता है। कर्म करना तो मानव स्वभाव है। महत्वपूर्ण एवं सामयिक प्रश्न है कि मनुष्य को साध्य की प्राप्ति के लिए कर्म करना चाहिए या नहीं? फल की आकांक्षा के बिना जो कर्म किया जाता है, उसे ही निष्काम कर्म कहते हैं।

मनुष्य अपने जीवन में कभी पूर्णरूपेण कर्मों से छुटकारा नहीं पा सकता है। प्राकृतिक गुण के विपरीत निष्क्रिय या क्रियाहीन होने का अर्थ जीवन का अंत होना है। अतः मनुष्य कभी भी निष्क्रिय नहीं हो सकता है। सामान्यतया मनुष्य का कर्म फल प्राप्ति की कामना के साथ होता है। सांसारिक वस्तुओ के प्रति तृष्णा होने के कारण हम उन सभी की कामना के साथ ही कर्म करते हैं। सांसारिक वस्तुओं के प्रति तृष्णा का कारण आसक्ति है। यह आसक्ति किसी न किसी रूप में पुनर्जन्म का कारण होता है। इस विश्व में कर्म करना कर्ता के नियन्त्रणाधीन होता है लेकिन उसका फल उसके प्रयत्नों की मात्रा पर निर्भर करता है। कर्म जो करता है, उसका परिणाम सदैव प्रत्याशित नहीं होता है। कर्म का परिणाम ईश्वराधीन है। जो कर्म फल की कामना को लेकर किया जाता है वह बन्धन का कारण होता है तथा परिणाम भी मनोनुकूल हो, यह भी निश्चित नहीं होता है। चूंकि स्वभावगत गुण के कारण कर्म करना मनुष्य के लिए आवश्यक है। इसलिए वैसा कर्म करना चाहिए जिसमें फल प्राप्ति की आकांक्षा निहित न हो। जो कर्म कर्तव्य की भावना लेकर सम्पादित किया जाता है तथा उसमें फल की कामना निहित नहीं होती है उसे ही निष्काम कर्म कहते हैं।

विशेषताएँ - निष्काम कर्म में कर्तव्य की चेतना तथा फल प्राप्ति की अचेतना निहित होती है। वास्तव में जब कोई व्यक्ति मनोयोगपूर्वक, दत्तचित्त होकर कर्म करता है, तब वैसी स्थिति में व्यक्ति को कर्म की चे   तना के अतिरिक्त अन्य किसी वस्तु की चेतना का अभाव रहता है। गीता में जिस निष्काम कर्म की अवधारणा को स्वीकार किया गया है उसका अर्थ कर्तव्य की चेतना से है। कर्ता के मन में यह भावना नहीं रहती है कि वह कर्म करता रहा है या क्रियाशील है। निष्काम कर्म अहं की भावना से रहित होता है। 

कर्म शब्द की उत्पत्ति 'कृ' धातु से हुई है, जिसका अर्थ है जो कुछ भी किया जाए। इसका पर्यायवाची शब्द कर्मफल होता है। दर्शन में इसका अर्थ उस परिणाम से होता है, जिसके कारण हमारे पूर्व कर्म हैं। लेकिन निष्काम कर्म में कर्म का अर्थ केवल कार्य है। मनुष्य विविध इच्छाओं से प्रेरित होकर कार्य करता है। कर्म का सम्पादन बिना इच्छा के सम्भव नहीं है। लेकिन जो कर्म केवल कर्म की दृष्टि से किया जाता है उसमें किसी वस्तु की अभिलाषा नहीं रहती है। ऐसा कर्म केवल इस कारण से किया जाता है कि उसका परिणाम् शुभ होगा। जिस किसी भी वस्तु की अभिलाषा से जो कर्म किया जाता है उसे प्राप्त कर लेने पर उसका क्रम वहीं समाप्त हो' जाता है। मनुष्य का वाह्य कर्म उसकी स्वार्थ भावनाओं का अनुगामी होता है; लेकिन जो व्यक्ति निःस्वार्थ भाव से कर्म करते हैं उनके कर्म का कभी भी लोप नहीं होता है। व्यक्ति को निरन्तर कर्म करते रहना चाहिए। फल की आकांक्षा नहीं करनी चाहिए। यही निष्काम कर्म का आदेश है। कर्म के फल पर हमारा अधिकार नहीं होता है।

निष्काम कर्मयोगी स्वयं को कर्मों का कर्ता मानता है परन्तु फल की प्राप्ति होने पर उस पर अपना अधिकार नहीं समझता है। यह फल ईश्वरीय फल है। निष्काम कर्म-योगी के अनुसार ईश्वर तथा कर्ता में अंतर है। वे एक-दूसरे के अंश नहीं हैं।

मिश्रित भक्ति - गीता का निष्काम कर्म भक्ति मिश्रित है। निष्काम कर्मयोगी का साध्य ईश्वर होता है। सभी कर्म ईश्वर के लिए ही किए जाते हैं। गीता के अनुसार मनुष्य को सतत् कार्य करना चाहिए, लेकिन कर्म के फल में इच्छा नहीं रखनी चाहिए। सभी कर्म में पुण्य का फल शुभ होता है तथा पाप का फल अशुभ होता है। शुभ एवं अशुभ दोनों ही आत्मा के बन्धन हैं। गीता में कहा गया है कि अगर हम अपने किए हुये कर्मों में आसक्त न हों तो उसका बन्धनात्मक प्रभाव नहीं होगा अर्थात् आत्मा मुक्त रहेगी। आसक्ति का परित्याग कर कर्मचक्र को चलते रहने देना चाहिए। कर्म करने में कर्ता को किसी भी संस्कार में आसक्ति नहीं होनी चाहिए। कर्म की स्वतंत्रता के लिए कार्य करने वाले व्यक्ति को फल की चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं है। चूँकि वह स्वयं निःस्वार्थ है, अतः किसी भी फल से उसे दुःख नहीं होता है। कर्म में आसक्ति नहीं होती है। जहाँ कृत कर्म के लिए हम बदले में कुछ इच्छा रखते हैं वहाँ कर्मफल की आकांक्षा हमारी आध्यात्मिक उन्नति में बाधक होती है। वैसे ही कर्म का फल बंधन नहीं हो सकता है जो प्रकृति एवं मानव जाति के प्रति निःस्वार्थ होकर किया जाता है। कर्म को उपासना समझकर करना चाहिए। 

निःस्वार्थ कर्म में भी कर्ता साध्य की प्राप्ति को अपने सामने रखकर कर्म करता है। बिना किसी लक्ष्य या साध्य को सामने रखे हुए कोई भी मानसिक प्रवृत्ति आगे नहीं बढ़ सकती है। निष्काम कर्म में भी साध्य छिपा रहता है जो मनोवैज्ञानिक सत्य है। साध्य से कर्ता को प्रेरणा प्राप्त होती है और उसी प्रेरणा या प्रयोजन से मुनष्य कार्य करने में संलग्न होता है। निष्काम कर्म के साध्य के दो आधार हैं- कर्तव्य, कर्तव्य के लिए तथा कर्तव्य ईश्वर के लिए। पहले अर्थ में कर्तव्य करना ही साध्य है तथा दूसरे अर्थ में ईश्वर कर्ता का साध्य होता है। 

अनासक्त एवं निष्काम कर्म - अनासक्त एवं निष्काम कर्म गीता का मुख्य प्रतिपाद्य विषय है। यह कर्म ज्ञान से ही सम्भव है। कर्म तथा भक्ति के बिना ज्ञान की प्राप्ति नहीं हो सकती है। ज्ञान, कर्म और भक्ति में अविनाभाव सम्बन्ध है। अहं भावना तथा अभिलाषा का परित्याग कर बुद्धि तथा विवेक के द्वारा जो कर्म किया जाता है, उसमें परमानन्द की प्राप्ति होती है। ऐसा कर्म करने वाला व्यक्ति कर्म-बन्धन एवं समस्त पापों से मुक्त है। इस प्रकार कर्म करने से अन्तः शुद्धि होती है तथा इस मार्ग पर चलने वाला सात्विककर्ता योग की सिद्धि प्राप्त करता है। इसलिए कर्म के फल की कामना नहीं करनी चाहिए कर्म केवल कर्तव्य बुद्धि से करना चाहिए। 

निष्कर्ष - वस्तुतः कर्म करना मनुष्य के अधीन है लेकिन कर्म का फल उसके प्रयास पर मात्र आधारित नहीं होता है। कर्ता को हमेशा मनोनुकूल फल प्राप्त नहीं होता है। कर्म का परिणाम ईश्वराधीन है। वैसे कर्म जो फल की आशा के साथ सम्पादित किये जाते हैं, वे बंधन का मूल कारण हैं। कर्म करना मनुष्य के लिए आवश्यक है अतः उसे वैसा कर्म करना चाहिए जिसमें फल प्राप्ति की कामना निहित न हो। कर्तव्य की भावना से कर्म करना चाहिए। कर्तव्य की भावना से सम्पादित कर्म में फल की कामना निहित नहीं रहती है, ऐसे ही कर्म निष्काम कर्म होते हैं। इस अवस्था में क्रियाशील होते हुये भी कर्ता कर्मों से विरक्त रहता है। इन कर्मों में कामना नहीं रहती है। कोई भी कर्म बिना कामना के सम्भव नहीं है। इसलिए इस प्रकार के कर्म में फल की कामना नहीं होती है। बल्कि ईश्वर प्राप्ति की भावना निहित होती है। ऐसे कर्म यज्ञ की भावना से तथा आत्मा प्राप्ति के लिए सम्पादित किए जाते हैं। इसमें बंधन नहीं होता है। निष्काम कर्म से मुक्ति मिलती है। अतः व्यक्ति को कर्तव्य कर्तव्य की भावना से करना चाहिए। वैसे कर्म जो धर्म के अनुसार बिना फल प्राप्ति की इच्छा के किए जाते हैं, वही निष्काम कर्म कहलाता है।

लक्ष्य ईश्वर - गीता के निष्काम कर्म का लक्ष्य ईश्वर है क्योंकि यह भक्ति मिश्रित निष्काम कर्म है। यहाँ कर्म ईश्वर को प्राप्त करने   के लिये किया जाता है। ईश्वर प्राप्ति की कामना निष्काम है। निष्काम कर्म में फल प्राप्ति की इच्छा को पूर्णतया छोड़ना उत्तम है। निष्काम कर्म की लक्ष्य ईश्वर होता है। कर्म कर्तव्य, कर्तव्य के लिए भावना से की जानी चाहिए। यह एक ऐसा साध्य है, जिससे कर्ता को कार्य करने की प्रेरणा मिलती है।

निष्काम कर्म में जब कार्य कर्तव्य, कर्तव्य की भावना से सम्पादित किया जाता है, तब उस साध्य में कार्य का पूर्ण भार कर्ता पर नहीं होता है। कर्ता के मन में अहं की भावना नहीं होती है। कार्य के सम्पूर्ण सम्पादन में अनेक छोटे-छोट कार्यों का भी योगदान रहता है। इन सभी छोटे- छोटे कार्यों के संग्रह को सम्पूर्ण कार्य कहते हैं। कर्ता का अपना सहयोग निष्काम कर्म में नगण्य - सा रहता है। अतः इसी संदर्भ में कर्ता निष्काम कर्म में कार्य का सम्पूर्ण भार स्वयं पर नहीं लेता है तथा मन में इस भावना के उत्पन्न होने पर अहं का विनाश हो जाता है। 

कर्म जीवन का आदर्श - गीता निष्काम कर्म को जीवन का आदर्श बनाने का निर्देश देती है। बिना किसी परिणाम की आकांक्षा से कर्म करना ही निष्काम कर्म है। कर्मफल को छोडने वाला ही वास्तविक त्यागी होता है। इसी कारण श्रीकृष्ण ने भी कहा है- 'कर्म में ही तेरा अधिकार है, फल में कभी नहीं, तुम कर्मफल का हेतु भी न बनो, अकर्मण्यता में तुम्हारी आसक्ति न हो।"

गीता का निष्काम कर्म कर्मों के त्याग के स्थान पर कर्म में त्याग का उपदेश देती है। निष्काम कर्म व्यक्ति को स्थितप्रज्ञ की अवस्था को प्राप्त करने में सक्षम होता है। इसलिए कर्ता को कर्म से संन्यास न लेकर कर्मों के फ़लों से संन्यास लेना चाहिए। फल को कभी भी कर्म का प्रेरक नहीं होना चाहिए। गीता कर्मफल त्यागने को अवश्य कहती है परन्तु इसका उद्देश्य संन्यास नहीं है। कर्म का मूल संकल्प होता है। अतः कर्म के फल से विरक्त होकर केवल कर्तव्य की भावना से जो कर्म किया जाता है उसे ही निष्काम कर्म कहते हैं। निष्काम कर्म में कर्म का सम्पादन स्वयं को ईश्वर की प्राप्ति समर्पित करके किया जाता है। निष्काम कर्म, कर्म का निषेध नहीं करता है। बल्कि यह कर्मयोग का संदेश देता है। 

काण्ट के अनुसार - जर्मन दार्शनिक काण्ट ने भी 'कर्तव्य' को कर्तव्य के लिए स्वीकार किया है। काण्ट के अनुसार नैतिकता का मापदण्ड कामनाओं के विनाश में निहित है। जो कर्म कामनाओं से प्रेरित होकर किया जाता है वह कभी भी नैतिक नहीं हो सकता है। दयावश दान देना भी काण्ट के अनुसार नैतिक नहीं है। काण्ट का यह कहना है कि कामनाओं को निर्मूल होना चाहिए, व्यावहारिक दृष्टिकोण से असम्भव है। लेकिन गीता के अनुसार कामनाओं को न तो नष्ट करना चाहिए न ही उन्हें बढ़ाया जाना चाहिए बल्कि कामनाओं को विवेक के द्वारा नियंत्रित करना चाहिए। विवेक से नियंत्रित कामनाओं का अपना स्वभाव समाप्त हो जाता है। कामनाओं का दमन व्यक्तित्व के विकास के लिए घातक है। काण्ट ने मनोवैज्ञानिक सत्य की अनदेखी की है। अतः काण्ट का मत अव्यावहारिक है। 

वेदान्त के अनुसार - गीता का निष्काम कर्म वेदान्त के निवृत्ति मार्ग से अधिक व्यावहारिक है। गीता प्रवृत्ति एवं निवृत्ति दोनों का समन्वय करती है। कर्म से संन्यास सभी मनुष्यों के लिए सम्भव नहीं है। अतः निष्काम भाव से ही कर्म करना गीता का मुख्य उपदेश है। वेदान्त दर्शन भी यह स्वीकार करता है कि मनुष्य को कर्तव्य, कर्तव्य की भावना से करना चाहिए तथा इच्छाओं को नहीं दबाना चाहिए बल्कि उसे विवेक के द्वारा नियंत्रित किया जाना चाहिए। किसी भी कर्तव्य में कामनाओं को जड़ से समाप्त नहीं किया जा सकता है; अतः कामना को केवल ईश्वर की प्राप्ति के निमित्त होना चाहिए। ऐसी कामना की पूर्ति फल की आकांक्षा किए बिना होनी चाहिए।

अतः वेदान्त का मत काण्ट की तुलना में अधिक व्यावहारिक है, लेकिन सभी में गीता का निष्काम कर्म ही अधिक सामान्य एवं महत्वपूर्ण है।

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    अनुक्रम

  1. प्रश्न- गीता में वर्णित स्थितप्रज्ञ की अवधारणा की विवेचना कीजिए।
  2. प्रश्न- गीता में प्रतिपादित लोक संग्रह की अवधारणा को स्पष्ट कीजिए।
  3. प्रश्न- गीता के नैतिक या आदर्श सिद्धान्त का संक्षिप्त विश्लेषण कीजिए।
  4. प्रश्न- गीता के निष्काम कर्म की विस्तारपूर्वक व्याख्या कीजिए।
  5. प्रश्न- गीता में वर्णित गुण की विवेचना कीजिए।
  6. प्रश्न- गीता में प्रतिपादित स्वधर्म की अवधारणा को स्पष्ट कीजिए।
  7. प्रश्न- गीता में वर्णित योग शब्द की विवेचना कीजिए।
  8. प्रश्न- गीता में वर्णित वर्ण एवं आश्रम का विवेचन कीजिए।
  9. प्रश्न- स्थितप्रज्ञ के लक्षण क्या हैं? क्या मनुष्य जीवन में इस स्थिति को प्राप्त कर सकता है? संक्षिप्त विवेचना कीजिए।
  10. प्रश्न- निष्काम कर्मयोग का परिचय दीजिए।
  11. प्रश्न- गीता में प्रवृत्ति और निवृत्ति से आप क्या समझते हैं?
  12. प्रश्न- कर्म के सिद्धान्त का महत्व बताइए।
  13. प्रश्न- कर्म सिद्धान्त के दोष बताइए।
  14. प्रश्न- कर्मयोग के सिद्धान्त की विवेचना कीजिए।
  15. प्रश्न- लोक संग्रह पर टिप्पणी लिखिए।
  16. प्रश्न- भगवद्गीता में 'लोकसंग्रह के आदर्श' की विवेचना कीजिए।
  17. प्रश्न- पुरुषार्थ के अर्थ एवं महत्व की विवेचना कीजिए।
  18. प्रश्न- पुरुषार्थ की अवधारणा व विशेषताएँ स्पष्ट कीजिए।
  19. प्रश्न- सामाजिक परिवर्तन के सिद्धान्त के रूप में पुरुषार्थ की व्याख्या कीजिए।
  20. प्रश्न- विभिन्न पुरुषार्थ की विस्तृत व्याख्या कीजिए।
  21. प्रश्न- पुरुषार्थ का विश्लेषण कीजिए।
  22. प्रश्न- पुरुषार्थ में सन्निहित मानवीय मूल्यों के अन्तर्सम्बन्ध की व्याख्या कीजिए।
  23. प्रश्न- पुरुषार्थ किसे कहते हैं?
  24. प्रश्न- धर्म किसे कहते हैं?
  25. प्रश्न- अर्थ किसे कहते हैं?
  26. प्रश्न- काम किसे कहते हैं?
  27. प्रश्न- धर्म पुरुषार्थ का जीवन में क्या महत्व है?
  28. प्रश्न- भारतीय नीतिशास्त्र में 'पुनर्जन्म के सिद्धान्त' की व्याख्या कीजिए।
  29. प्रश्न- धर्म-दर्शन के स्वरूप परिभाषा दीजिए तथा इसके क्षेत्रों का उल्लेख करते हुए इसकी समस्याओं का विश्लेषण कीजिए।
  30. प्रश्न- धर्म-दर्शन एवं धर्म के परस्पर सम्बन्धों का विश्लेषणात्मक विवेचन कीजिए।
  31. प्रश्न- धर्म-दर्शन के स्वरूप की व्याख्या कीजिए। यह ईश्वरशास्त्र से किस प्रकार भिन्न है?
  32. प्रश्न- धर्म और दर्शन में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
  33. प्रश्न- धर्म का क्या अभिप्राय है? सामान्य धर्म के लिए मनुस्मृति में किन मानवीय गुणों का उल्लेख किया गया है?
  34. प्रश्न- विशिष्ट धर्म किसे कहते हैं? इसके प्रमुख स्वरूपों की व्याख्या कीजिए।
  35. प्रश्न- सामान्य धर्म और विशिष्ट धर्म में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
  36. प्रश्न- जैन नीतिशास्त्र से आप क्या समझते हैं? व्याख्या कीजिए।
  37. प्रश्न- जैन नीतिशास्त्र के पंचमहाव्रत सिद्धान्त की विवेचना कीजिए।
  38. प्रश्न- जैन नीतिशास्त्र के अणुव्रत सिद्धान्त का विवेचना कीजिए।
  39. प्रश्न- जैन नीतिशास्त्र की तात्विक पृष्ठभूमि का विवेचन कीजिए।
  40. प्रश्न- जैन नीतिशास्त्र की प्रमुख विशेषताएँ बताइए।
  41. प्रश्न- परमश्रेय की संक्षिप्त विवेचना कीजिए।
  42. प्रश्न- जैन नीतिशास्त्र में 'त्रिरत्न' की अवधारणा की विवेचन कीजिए।
  43. प्रश्न- बुद्ध के अष्टांगिक मार्ग की व्याख्या कीजिए।
  44. प्रश्न- 'बोधिसत्व' किसे कहते हैं? स्पष्ट कीजिए।
  45. प्रश्न- निर्वाण के स्वरूप का विवेचन कीजिए।
  46. प्रश्न- 'अर्हत्' पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
  47. प्रश्न- बुद्ध के नीतिशास्त्र में साधन विचार का विवेचन कीजिए।
  48. प्रश्न- बौद्ध के नीतिशास्त्र सिद्धान्त की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए।
  49. प्रश्न- गांधीवाद से आप क्या समझते हैं? राज्य के कार्यक्षेत्र के सम्बन्ध में महात्मा गांधी की विचारधारा का वर्णन कीजिए।
  50. प्रश्न- गांधीवादी दर्शन का मूल आधार धर्म (सत्य और अहिंसा) था, संक्षेप में स्पष्ट करें।
  51. प्रश्न- गांधी जी की कार्य पद्धति पर संक्षेप में प्रकाश डालिए।
  52. प्रश्न- सत्याग्रह से आप क्या समझते हैं संक्षेप में समझाइये?
  53. प्रश्न- महात्मा गाँधी द्वारा प्रतिपादित ट्रस्टीशिप सिद्धान्त की विवेचना कीजिए।
  54. प्रश्न- गाँधी जी के सात सामाजिक पाप कौन-से हैं?
  55. प्रश्न- गाँधी जी के एकादश व्रत कौन-से हैं? व्याख्या कीजिए।
  56. प्रश्न- नीतिशास्त्र से आप क्या समझते हैं? परिभाषा देते हुए इसका अर्थ स्पष्ट कीजिए।
  57. प्रश्न- नीतिशास्त्र मानवशास्त्र से किस तरह जुड़ा है? स्पष्ट कीजिये।
  58. प्रश्न- नीतिशास्त्र की विषय-वस्तु क्या है? स्पष्ट कीजिए।
  59. प्रश्न- नीतिशास्त्र से क्या अभिप्राय है? इसकी प्रकृति एवं क्षेत्र बताते हुए भारतीय एवं पाश्चात्य नीतिशास्त्र में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
  60. प्रश्न- नीतिशास्त्र की प्रणालियों पर एक विस्तृत निबन्ध लिखिए।
  61. प्रश्न- टेलीलॉजिकल नैतिकता और कर्तव्य आधारित नैतिकता का क्या अर्थ है? इन दोनों में अन्तर बताइए।
  62. प्रश्न- कान्ट के नैतिक सिद्धान्त को समझाइए।
  63. प्रश्न- नैतिक विकास का क्या अर्थ है? नैतिक विकास के चरणों का उल्लेख कीजिए।
  64. प्रश्न- नीतिशास्त्र एक आदर्श निर्देशक सिद्धान्त है। व्याख्या कीजिए।
  65. प्रश्न- भारतीय नीतिशास्त्र को प्राथमिक जड़े कहाँ मिलती हैं? स्पष्ट कीजिए।
  66. प्रश्न- क्या नीतिशास्त्र एक विज्ञान है?
  67. प्रश्न- नैतिक तथा नैतिक-शून्य कर्म क्या है? व्याख्या कीजिए।
  68. प्रश्न- गीता के निष्काम कर्म की अवधारणा की व्याख्या कीजिए और उसकी काण्ट के कर्तव्य की अवधारणा से तुलना कीजिए।
  69. प्रश्न- नैतिक कर्म तथा नैतिक-शून्य कर्म में अन्तर लिखिए।
  70. प्रश्न- ऐच्छिक तथा अनैच्छिक कर्मों से आप क्या समझते हैं?
  71. प्रश्न- ऐच्छिक व अनैच्छिक कर्म में अन्तर बताइए।
  72. प्रश्न- नैतिक निर्णय से आप क्या समझते हैं? इसका स्वरूप तथा विशेषताएँ बताइए।
  73. प्रश्न- क्या नैतिक निर्णय कर्मों के परिणाम के आधार पर होता है? विवेचना कीजिए।
  74. प्रश्न- नैतिक निर्णय एवं अन्य निर्णयों में क्या अन्तर है?
  75. प्रश्न- 'साध्यों का साम्राज्य।' व्याख्या कीजिए।
  76. प्रश्न- नैतिक चेतना से आप क्या समझते हैं?
  77. प्रश्न- नैतिक चेतना के मुख्य तत्व बताइए।
  78. प्रश्न- नैतिक परिस्थिति से आपका क्या तात्पर्य है?
  79. प्रश्न- नैतिक परिस्थिति के लक्षण बताइए।
  80. प्रश्न- नैतिक निर्णय से आप क्या समझते हैं? साधन व साध्य का नीतिशास्त्र में क्या महत्व है?
  81. प्रश्न- नैतिक निर्णय एवं तार्किक निर्णय में अंतर क्या है?
  82. प्रश्न- क्या साध्य साधन को प्रमाणित करता है?
  83. प्रश्न- नैतिक निर्णय की आवश्यक मान्यताएँ क्या हैं? व्याख्या कीजिए।
  84. प्रश्न- नैतिकता की मान्यताओं की व्याख्या कीजिए।
  85. प्रश्न- काण्ट द्वारा प्रतिपादित नैतिक मान्यताओं का वर्णन कीजिए।
  86. प्रश्न- नैतिकता में किसका प्राधिकार है "चाहिए" का या आवश्यक का।
  87. प्रश्न- अनैतिक कर्म क्या है? व्याख्या कीजिए।
  88. प्रश्न- सुखवाद से आप क्या समझते हैं? यह कितने प्रकार का होता है?
  89. प्रश्न- मनोवैज्ञानिक सुखवाद से आप क्या समझते हैं? समीक्षा कीजिए।
  90. प्रश्न- प्राचीन सुखवाद की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए।
  91. प्रश्न- विकासवादी सुखवाद क्या है?
  92. प्रश्न- उपयोगितावाद के लिये सिजविक की क्या युक्तियाँ हैं? व्याख्या कीजिए।
  93. प्रश्न- बैन्थम के उपयोगितावाद की विस्तृत व्याख्या कीजिए।
  94. प्रश्न- बैंन्थम के स्थूल परसुखवाद की समीक्षात्मक विवेचना कीजिए।
  95. प्रश्न- मिल के परिष्कृत उपयोगितावाद का आलोचनात्मक विवरण प्रस्तुत कीजिए।
  96. प्रश्न- मिल के परिष्कृत परसुखवाद की समीक्षात्मक विवेचना कीजिए।
  97. प्रश्न- उपयोगितावाद एवं अन्तःअनुभूतिवाद के सापेक्षिक गुणों का संकेत कीजिए।
  98. प्रश्न- कर्मवाद का सिद्धान्त भारतीय दर्शन का मुख्य स्तम्भ है। व्याख्या कीजिए।
  99. प्रश्न- मिल के उपयोगितावाद की प्रमुख विशेषताएं क्या है?
  100. प्रश्न- "सुखवाद के विरोधाभास" को स्पष्ट कीजिए।
  101. प्रश्न- मनोवैज्ञानिक एवं नैतिक सुखवाद में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
  102. प्रश्न- नैतिक सिद्धान्त के रूप में अन्तः प्रज्ञावाद का विवेचन कीजिए।
  103. प्रश्न- रसेन्द्रियवाद क्या है? विवेचन कीजिए।
  104. प्रश्न- दार्शनिक अन्तःप्रज्ञावाद का समीक्षात्मक विवेचन कीजिए।
  105. प्रश्न- बटलर के अन्तःकरणवाद या अन्तःप्रज्ञावाद सिद्धान्त का विवेचन कीजिए।
  106. प्रश्न- नैतिक गुण के विषय में अन्तः प्रज्ञावाद के विचार का विवेचन कीजिए।
  107. प्रश्न- अदार्शनिक अन्तःप्रज्ञावाद का विवेचन कीजिए।
  108. प्रश्न- काण्ट के अहेतुक आदेश के सिद्धान्त का आलोचनात्मक विवेचन कीजिए।
  109. प्रश्न- बुद्धिवाद या कठोरतावाद तथा सुखवाद क्या है? वर्णन कीजिए।
  110. प्रश्न- स्टोइकवाद क्या है? व्याख्या कीजिए।
  111. प्रश्न- मध्यकालीन बुद्धिवाद या ईसाई वैराग्यवाद की व्याख्या कीजिए।
  112. प्रश्न- काण्ट के कठोरतावाद के रूप में आधुनिक बुद्धिवाद की व्याख्या कीजिए।
  113. प्रश्न- काण्ट द्वारा प्रतिपादित नैतिक सूत्र का आलोचनात्मक परिचय दीजिए।
  114. प्रश्न- काण्ट के नैतिक सिद्धान्त की व्याख्या कीजिए।
  115. प्रश्न- काण्ट के नीतिशास्त्र की प्रमुख विशेषताओं का वर्णन कीजिए एवं गीता के निष्काम कर्म से इसकी तुलना कीजिए।
  116. प्रश्न- काण्ट के बुद्धिवादी नीतिशास्त्र का समीक्षात्मक मूल्यांकन कीजिए।
  117. प्रश्न- काण्ट के अनुसार निरपेक्ष आदेश “Categorical Imprative” की व्याख्या कीजिए।
  118. प्रश्न- दण्ड के सिद्धान्त से आप क्या समझते हैं? दण्ड के प्रतिशोधात्मक सिद्धान्त की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए।
  119. प्रश्न- दण्ड के सुधारात्मक सिद्धान्त की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए। क्या मृत्युदण्ड उचित है? विवेचना किजिये।
  120. प्रश्न- दण्ड के विभिन्न सिद्धान्तों की व्याख्या कीजिए।
  121. प्रश्न- दण्ड का अर्थ तथा उद्देश्य क्या है?
  122. प्रश्न- दण्ड का दर्शन क्या है?

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